कांग्रेस को अपने जड़ों की तरफ लौटना होगा

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asdf-जावेद अनीस-
भारत की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस अपने सबसे बड़े संकट के दौर से गुजर रही है, 2014 में उसे अपने चुनावी इतिहास के सबसे बड़ी पराजय का सामना करना पड़ा था और उसे  पचास से भी कम सीटें मिली थीं। वैसे तो किसी चुनाव में हार-जीत सामान्य है लेकिन यह हार कुछ अलग था इसे कांग्रेस के लिए सामान्य नहीं कहा जा सकता है। 2014 के आम चुनाव के दौरान हमने पहली बार कांग्रेस मुक्त भारत का नारा सुना था जो अब धीरे-धीरे सही होता जा रहा है । 2014 में लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस अभी तक  संभल नहीं पायी है और एक के बाद एक विफलतायें उसकी नियति बन गयी हैं,वह लगातार कमजोर हुई है। आज भाजपा ने भारतीय राजनीति में कांग्रेस का स्थान ले लिया है और कांग्रेस के सामने एक क्षेत्रीय पार्टी के रूप में बदलने का खतरा मंडरा रहा है। इधर पार्टी की मुश्किलें भी बढ़ती जा रही हैं वह नेशनल हेराल्ड और अगस्ता वेस्टलैंड जैसे नये आरोपों का सामना कर रही है जिसके घेरे में सीधे  तौर पर उस्जा शीर्ष नेतृत्व है।

पहले जब कभी भी वह सत्ता से बाहर हुई है तो  उसकी वापसी पर किसी को संदेह नहीं होता था लेकिन आज कांग्रेस की वापसी को लेकर कांग्रेसी ही संदेह करते हुए देखे जा सकते हैं। आज कांग्रेस का मुकाबला अकेले भाजपा से नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके विशाल परिवार से है, जो बहुत तेजी से नेहरु के “आईडिया ऑफ़ इंडिया” के बदले “आईडिया ऑफ़ संघ” की दिशा में काम कर रहा है। इसके प्रतिरोध में कांग्रेस की तरफ से कोई ठोस प्रतिरोध दिखायी नहीं पड़ता है। इधर तमाम प्रयासों के बावजूद अभी तक राहुल गाँधी आगामी लोकसभा चुनाव के लिए अपने आप को विकल्प के तौर पर पेश करने में नाकामयाब रहे हैं, उलटे उन्हें अगले साल होने वाले यू।पी। विधान सभा में मुख्यमंत्री उम्मीदवार के तौर पर पेश करने का सुझाव दिया जा रहा है ।

इस दौरान  बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने ‘संघ मुक्त भारत’ का नारा देते हुए भाजपा विरोधी खेमे की तरफ से अपनी दावेदारी पेश कर दी है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस को अपने इस संकट की गहराई का एहसास है ?  इससे उबरने के लिए तैयारी पार्टी की रणनीति क्या है ? इस सवाल का जवाब किसी भी कांग्रेसी के चहरे पर पढ़ा जा सकता है ।

पिछले दिनों राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के शरद पवार ने खुद को दिल से कांग्रेसी बताते हुए कहा था किकि उन्हें देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस का भविष्य अनिश्चित दिखता है। यकीनन आज कांग्रेस दोहरे संकट से गुजर रही है यह संकट अंदरूनी और बाहरी दोनों है लेकिन अंदरूनी संकट ज्यादा गहरा है, संकट इसलिए भी बड़ा है क्योंकि इसके घेरे में  गांधी-नेहरू परिवार भी शामिल है। पार्टी की विपरीत परिस्थितियों से लड़ने की इच्छा शक्ति ही खत्म हो गई लगती है और सब-कुछ एक परिवार के भरोसे छोड़ दिया गया है बाकी सभी को इस परिवार से वफ़ादारी दिखाने  का ही विकल्प दिया गया है लेकिन गाँधी परिवार खुद अपना भरोसा खोता जा रहा है। जवाबदेही का घोर आभाव है, लोकसभा चुनाव में हार के बाद इसकी समीक्षा के लिए ए।के। एंटनी की अध्यक्षता में एक समिति बनाई गयी थी  जिसकी रिपोर्ट पर पार्टी में चर्चा तक नहीं की गयी।

दिल्‍ली स्थित सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के प्रताप भानु मेहता कहते हैं कि “पार्टी में अब भी निराशा का दौर है और यहाँ ढांचागत समस्‍या हैं आज कांग्रेस  की स्थिति यह है कि उसके पास एक भी प्रदेश गुड गवर्नेंस के उदाहरण के तौर पर पेश करने लायक नहीं है और ना ही उसके पास कामयाबी के चेहरे के तौर पर दिखाने के लिए एक भी सीएम है, इससे उबरने के लिए उसे बड़े पैमाने पर संगठनात्‍मक कोशिश, विचारधारा में बदलाव, फैसले लेने लायक नेतृत्‍व और राजनीतिक इच्‍छाशक्‍ति‍ की जरूरत होगी, लोकसभा चुनाव अभी दूर है लेकिन आने वाले दो साल पार्टी के लिए बेहद अहम साबित होने वाले हैं”

इसी बात को आगे बढ़ाते हुए  वरिष्ठ पत्रकार एल।एस। हरदेनिया कहते हैं कि “आज कांग्रेस एक राजनीतिक संगठन के तौर पर काम नहीं कर पा रही है, इतनी बड़ी हार के बाद पार्टी के अंदर कोई समीक्षा नहीं हुई और सब कुछ किसी चमत्कार के भरोसे छोड़ दिया गया है कांग्रेस को पुन: ताकतवर बनाना अकेले राहुल गांधी के बस की बात नहीं है।”

अपने बारह साल के पॉलिटिकल कैरियर में राहुल ज्यादातर समय अनिच्छुक और थोपे हुए गैर-राजनीतिक प्राणी लगे,वे भारतीय राजनीति की शैली,व्याकरण और तौर-तरीकों के लिहाज से अनफिट नजर आये। उनकी छवि एक “कमजोर” ‘संकोची’ और ‘यदाकदा’ नेता की बन गयी जो अनमनेपन से सियासत में है पिछले साल राहुल गांधी जब अपनी बहुचर्चित छुट्टी पर गये थे तो  कांग्रेस के एक नेता ने उनकी तुलना “अल्फ्रेड द ग्रेट” से की थी ,1100 साल पहले इंग्लैंड का एक राजा जो जंग हारने के बाद रहस्यमय तरीके से गायब हो गया था लेकिन जब वापस आया तो उसने हर मोर्चे पर जीत हासिल की, बहरहाल उनके 59 दिनों की बहुचर्चित आत्मचिंतन के बाद एक किसान रैली को राहुल की एक बार फिर री-लांचिंग की गयी , इस दौरान उन्होंने अपने सियासी जीवन का पहला नारा दिया “सूट- बूट की सरकार” यह नारा वाकई दमदार था , वे यह समझाने में सफल रहे कि मोदी सरकार किसान विरोधी और उद्योग जगत की हितेषी है इन सबसे पहली बार मोदी सरकार परेशान दिखी और उसे अपनी छवि बदलने की जरूरत महसूस हुई। सरकार विवादित “भूमि अधिग्रहण विधेयक” वापस लेने को भी मजबूर हुई ।कुल मिलाकर वापसी के बाद राहुल गाँधी “अल्फ्रेड द ग्रेट” भले ही ना बन पाए हों लेकिन उसके बाद उनका अंदाज सधा और आक्रामक हो गया वे  सार्वजनिक रूप से ज्यादा नज़र आने लगे, उन्होंने मोदी सरकार पर सीधा हमला करना शुरू कर दिया, जेएनयू से नेट न्यूट्रेलिटी, किसानों की आत्महत्या से लेकर दलित अधिकारों तक के कई मुद्‌दे उठाने से उनकी सार्वजनिक छवि चमकी है। अपनी पार्टी के पुराने नेताओं से सम्बन्ध सुधरने की दिशा में भी उन्होंने काम किया है और अब वरिष्ठ नेताओं से उनके रिश्ते सहज लग रहे हैं।

इन सबके बावजूद जिस लेवल का संकट है उसके मुकाबले यह नाकाफी है वे अभी तक अपने पार्टी में ही अपना वर्चस्व स्थापित  नहीं कर पाए हैं और  पार्टी के अंदर और बाहर दोनों जगह  राहुल को एक प्रेरणादायक और चुनाव जिता सकने वाले नेता के तौर पर स्वीकृति नहीं मिली है, पार्टी की राज्य इकाईयों पर भी  राहुल गांधी की कोई पकड़ दिखाई नहीं पड़ रही है।उनमें नेतृत्व की क्षमता और संकट के समय जोखिम लेने की क्षमता का आभाव दिखाई पड़ता है।

एल।एस। हरदेनिया कहते हैं कि “कांग्रेस में शीर्ष नेतृत्व और जमीनी कार्यकर्ताओं के बीच संवादहीनता की स्थिति है, गांधी परिवार की मौजूदा पीढ़ी के नेताओं का कार्यकर्ताओं से कोई सीधा जुड़ाव नहीं है वे चुनाव के समय ही प्रचार के लिए जाते हैं , पार्टी में कई सारे  नेता है जिनकी क्षमताओं का उपयोग नहीं किया जा रहा है, अपने सवा सौ साल से ज्यादा के सफ़र में  कांग्रेस का नेतृत्व पहली बार इतना कमजोर नज़र आ रहा है, राहुल गांधी की अपनी सीमा है और सोनिया गांधी की राजनीतिक सक्रियता घटती जा रही है”

कांग्रेस विचारधारा को लेकर भी भ्रम का शिकार है, पार्टी अपनी विचारधारा कब का छोड़ चुकी है और अब भाजपा का पिछलग्गू बनने की कोशिश करती हुई नज़र आती है महाराष्ट्र में ‘भारत माता की जय’ कहने से इनकार करने वाले एमआईएम विधायक को निलंबित करने की मांग करने में कांग्रेस विधायक ही सबसे आगे थे, इसी तरह से असदुद्दीन ओवैसी की भारत माता  की जय बोलने से इनकार करने वाले बयान पर मध्यप्रदेश में विधायक जीतू पटवारी सेंसर विधेयक लेकर आये थे।

लोकसभा चुनाव में हार के बाद अभी तक कांग्रेस  कमोबेश वहीँ कदमताल कर रही है जहाँ भाजपा ने उसे 2014 में छोड़ा था। इस दौरान  पार्टी ने जो थोड़ी -बहुत सफलता का स्वाद चखा है वह  भाजपा की गलतियों  की वजह से हुआ है ना कि कांग्रेस के अपने प्रयासों की वजह से, लेकिन शायद कांग्रेस को ऐसा नहीं लगता है शायद इसीलिए पार्टी ने में 2017 में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए प्रशांत किशोर को उत्तर प्रदेश के लिए हायर किया है ये वही प्रशांत किशोर हैं जिन्होंने 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी को शानदार जीत दिलाने वाली रणनीति बनाई थी।शायद उसे लगता है कि मोदी सरकार की विफलताओं और प्रशांत किशोर के प्रबंधन से वह वापसी कर लेगी।

इसपर एल।एस। हरदेनिया कहते हैं कि “यह कांग्रेस  की भूल है कि वह प्रशांत के सहारे वापसी कर लेगी, नरेंद्र मोदी या नितीश कुमार प्रशांत किशोर की वजह से चुनाव नहीं जीते थे, उनके पक्ष में परिस्थितियां थीं जिसे प्रशांत ने सिर्फ मैनेज करने का काम किया था” ।

कांग्रेस पार्टी को समझना होगा कि संकट बड़ा है और छोटे उपायों से हालत बदलने नहीं जा रहे हैं यहाँ से बाहरनिकलने के लिए  उसे बड़ा कदम उठाना होगा उसे ऐसा फैसला लेना होगा जो निर्णायक हो, अब कांग्रेस का भविष्य राहुल प्रयंका या प्रशांत किशोर  पर नहीं बल्कि इस बात पर टिका है की वह अपने अन्दर कितना बदलाव ला पाती है। कांग्रेस को यह समझना  होगा कि उसका मुकाबला एक ऐसे नेता और विचारधार से है जो जीवन के हर क्षेत्र में सक्रिय है, नरेंद्र मोदी सप्ताह में  सातों दिन और  24 घंटे वाले नेता हैं उनकी  जनता की नब्ज पर मजबूत पकड़ है। 2014 से लेकर अभी तक यह बात कई बार साबित हो चुकी है कि कांग्रेस अपने मौजूदा स्वरूप में उनसे नुकबला करने में सक्षम नहीं है इसलिए उसके पास  खुद को बदलने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।

प्रताप भानु मेहता मानते हैं कि कांग्रेस को बदलते माहौल को समझते हुए उसके अनुसार ख़ुद को न बदलना होगा।” एल।एस। हरदेनिया का कहना है कि कांग्रेस को सामूहिक लीडरशिप की जरूरत है, उसे अपने जड़ों की तरफ लौटना होगा और आजादी के आन्दोलन के दौरान जिन मूल्यों और विचारों की विरासत उसे मिली थी उन्हें अपने एजेंडे में लाना होगा तभी जाकर वह अपनी खोई हुई जमीन दोबारा हासिल कर सकती है”

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javed picपरिचय – :
जावेद अनीस
लेखक , रिसर्चस्कालर ,सामाजिक कार्यकर्ता

लेखक रिसर्चस्कालर और सामाजिक कार्यकर्ता हैं, रिसर्चस्कालर वे मदरसा आधुनिकरण पर काम कर रहे , उन्होंने अपनी पढाई दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया से पूरी की है पिछले सात सालों से विभिन्न सामाजिक संगठनों के साथ जुड़  कर बच्चों, अल्पसंख्यकों शहरी गरीबों और और सामाजिक सौहार्द  के मुद्दों पर काम कर रहे हैं,  विकास और सामाजिक मुद्दों पर कई रिसर्च कर चुके हैं, और वर्तमान में भी यह सिलसिला जारी है ! जावेद नियमित रूप से सामाजिक , राजनैतिक और विकास  मुद्दों पर  विभन्न समाचारपत्रों , पत्रिकाओं, ब्लॉग और  वेबसाइट में  स्तंभकार के रूप में लेखन भी करते हैं !

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