आपातकाल बनाम ‘आफत काल’

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– तनवीर जाफरी –

कांग्रेस विरोध की राजनीति करने वाले नेता 25 जून 1975 की तिथि को आज तक भुला नहीं पा रहे हैं। जून 1975 से मार्च 1977 के मध्य घोषित किया गया आपातकाल का दौर आज भी न केवल याद किया जाता है बल्कि इसे देश की राजनीति में एक काले अध्याय के रूप में चिन्हित किया जाता है। अनेक गैर कांग्रेसी राज्यों में आपातकाल के दौरान गिरफ्तार किए गए नेताओं को पेंशन से नवाज़ा गया है। इसके अतिरिक्त उन्हें अन्य कई सरकारी सुविधाएं दी गई हैं। उस दौरान जेल जाने वाले लोग स्वयं को बड़े गर्व से मीसा बंदी कहते हैं। उस दौर को पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के कथित तानाशाही के दौर के रूप में तथा प्रेस अथवा मीडिया का गला घोंटने के काल के रूप में भी याद किया जाता है। देश में आपातकाल लगाए जाने का परिणाम इंदिरा गांधी को किस रूप में भुगतना पड़ा था यह भी देश भलीभांति जानता है। उसी दौर में कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता पार्टी छोडक़र चले गए थे। उसी समय कांग्रेस में एक बड़ा विभाजन भी हुआ था। और 1977 के आम चुनाव में इंदिरा गांधी को लंबे समय के बाद सत्ता से भी हाथ धोना पड़ा था।

माननीय सर्वोच्च न्यायालय तथा केंद्र सरकार के मध्य ताज़ा गतिरोध राफेल विमान सौदे को लेकर भी सामने आ रहा है
माननीय सर्वोच्च न्यायालय तथा केंद्र सरकार के मध्य ताज़ा गतिरोध राफेल विमान सौदे को लेकर भी सामने आ रहा है

आज देश में निश्चित रूप से घोषित आपातकाल जैसी कोई स्थिति नहीं है। परंतु आज के सत्ताधीशों की बातें, उनके बयान व वक्तव्य,उनकी तजऱ्-ए-सियासत आदि देखकर तो ऐसा प्रतीत होता है कि भले ही वर्तमान दौर घोषित आपातकाल का दौर न हो परंतु नि:संदेह राजनीति का वर्तमान काल किसी ‘आफतकाल’ से कम नहीं। सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह से लेकर पार्टी के विधायक स्तर के नेताओं तक के मुंह से कभी-कभी ऐसी बातें सुनाई दे जाती हैं जो सीधे तौर पर भारतीय संविधान,भारतीय न्याय व्यवस्था,प्रशासनिक व्यवस्था तथा मीडिया को चुनौती देने वाली प्रतीत होती हैं। मिसाल के तौर पर पिछले दिनों भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने केरल में एक जनसभा के दौरान सर्वोच्च न्यायालय को नसीहत देने के अंदाज़ में यह कहा कि सुप्रीम कोर्ट को ऐसे फैसले नहीं देने चाहिए जिन्हें लागू नहीं किया जा सकता। उनका यह निर्देशनुमा लहजा माननीय सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले के संदर्भ में था जिसमें माननीय न्यायालय ने सबरीमाला मंदिर में दस वर्ष से लेकर 50 वर्ष की महिलाओं के मंदिर में प्रवेश पर लगे प्रतिबंध को हटाने का आदेश दिया था। परंतु न्यायालय के आदेश के बावजूद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ तथा भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के विरुद्ध प्रदर्शन जारी रखा। स्वयं अमितशाह ने आंदोलनकारियों से अदालती फैस्ले के विरुद्ध आंदोलन जारी रखने को कहा और आंदोलनकारियों को विश्वास दिलाया कि पार्टी इस आंदोलन में उनके साथ है।

अब यहां प्रश्र यही उठता है कि अदालतों को अपने निर्णय आिखर किस आधार पर देने चाहिए? क्या अदालतें सुबूत,दस्तावेज़,न्याय तथा मानवाधिकार आदि के मद्देनज़र अपने फैसले सुनाएं या फिर प्राचीन परंपराओं का अनुसरण करने तथा इससे जुड़ी जनभावनाओं का आदर करते हुए अदालतें अपने फैसले सुनाया करें? आज महिलाओं की आबादी विश्व की आधी आबादी के रूप में पहचानी जाती है। किसी भी देवी-देवता की पूजा व दर्शन करना पुरुषों की ही तरह महिलाओं का भी अधिकार है। किसी भी धर्म से जुड़े किसी भी धर्मस्थान की पवित्रता व उसकी मर्यादा को बनाए रखने की चिंता मर्दों से अधिक औरतों को होती है। वे स्वयं किसी भी अपवित्रता की स्थिति में किसी भी धर्मस्थान पर जाना गवारा नहीं करतीं। ऐसे में किसी भी मंदिर-मस्जिद,दरगाह या गुरुद्वारे के धर्माधिकारियों को केवल लिंग के आधार पर किसी को प्रवेश की अनुमति देने या न देने का आिखर क्या औचित्य है? जब मुंबई में हाजी अली की दरगाह में महिलाओं को प्रवेश की अनुमति देकर अदालत के फैसले को लागू कराया जा सकता है,जब महाराष्ट्र में ही शनि शिंगणापुर में महिलाओं द्वारा चलाए गए लंबे आंदोलन के बाद अदालत उन्हें मंदिर में प्रवेश की अनुमति दे सकती है फिर आिखर सबरीमाला मंदिर से संबंधित निर्णय को लेकर राजनीति करने का क्या कारण?

अमित शाह के सर्वोच्च न्यायलय को दिए गए निर्देश अथवा सुझाव को पार्टी अध्यक्ष के दंभपूर्ण रवैये के रूप में भी देखा जा रहा है तथा कुछ लोग इसे सुप्रीम कोर्ट को अमित शाह द्वारा दी गई चेतावनी भी मान रहे हैं। सवाल यह है कि क्या न्यायालय अमित शाह के इस बयान पर कोई संज्ञान लेगा? क्या शाह द्वारा दिया गया इस प्रकार का निर्देश लोकतंत्र के लिए खतरा नहीं है? वर्तमान दौर में अदालतों की दयनीय स्थिति का अंदाज़ा तो उसी समय हो गया था जबकि स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार इसी वर्ष 12 जनवरी को सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठ जजों ने लोकतंत्र पर मंडराते हुए भयंकर खतरे के मद्देनज़र पत्रकार सम्मेलन बुलाया था और देश के समक्ष असहाय होकर अपनी व अदालत की स्थिति स्पष्ट की थी।  अदालतों के अतिरिक्त देश के दूसरे अति प्रमुख संस्थानों जैसे सीबीआई,भारतीय रिज़र्व बैंक, सीवीसी और ईडी आदि किस दौर से गुज़र रहे हैं यह भी किसी से छुपा नहीं है। देश में मीडिया की स्थिति की तुलना यदि आपातकाल के दौर से की जाए तो उस समय का मीडिया यदि सेंसरशिप का शिकार था तो आज का मीडिया बिकाऊ मीडिया,दलाल मीडिया या गोदी मीडिया जैसे विशेषणों का पात्र बन गया है। आिखर क्यों? गत् चार वर्षों में अनेक लेखक व पत्रकार मारे जा चुके हैं। कई पर आपराधिक मुकद्दमे दर्ज हो चुके हैं। कईयों को धमकियां मिल रही हैं तो अधिकांश को खरीदा जा चुका है। कई निष्पक्ष पत्रकार अपनी नौकरी गंवा चुके हैं। कम से कम आपातकाल के दौरान देश को ऐसी स्थिति का सामना तो हरगिज़ नहीं करना पड़ रहा था।

माननीय सर्वोच्च न्यायालय तथा केंद्र सरकार के मध्य ताज़ा गतिरोध राफेल विमान सौदे को लेकर भी सामने आ रहा है। अब तक राफेल फाईटर जेट विमानों की कीमत छुपाती आ रही केंद्र सरकार से सर्वोच्च न्यायालय ने दस दिन के भीतर बंद लिफाफे में  विमानों की कीमत बताए जाने का निर्देश दिया है। जबकि केंद्र सरकार अभी भी इसे अत्यंत गोपनीयता का विषय बता रही है और अदालत को राफेल विमान की कीमत बताए जाने से आनाकानी कर रही है। सर्वोच्च न्यायालय ने राफेल से संबंधित याचिका दायर करने वाले पूर्व केंंद्रीय मंत्रियों यशवंत सिन्हा व अरूण शौरी तथा वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण की याचिका पर संज्ञान लेते हुए सरकार से राफेल डील में भारतीय ऑफसेट पार्टनर चुने जाने संबंधी जानकारी भी सांझा करने को कहा है। कितनी बड़ी त्रासदी है कि याचिका कर्ताओं ने जब इस संबंध में सीबीआई जांच की मांग की तो माननीय मुख्य न्यायधीश को यह कहना पड़ा कि ‘अभी इसके लिए वक्त लग सकता है पहले उन्हें (सीबीआई)को अपना घर (विभाग) तो संभाल लेने दीजिए’। ज़ाहिर है माननीय मुख्य न्यायधीश को यह टिप्पणी सीबाआई की उसी दुर्दशा पर करनी पड़ी है जिसके तहत सीबीआई कार्यालय में पिछले दिनों रात दो बजे हाई प्रोफाईल ड्रामा देखने को मिला था जिसमें निदेशकों की उठापटक व केंद्र सरकार की खासतौर पर प्रधानमंत्री की सीधी दखलअंदाज़ी पूरे देश ने देखी।

ऐसा प्रतीत होता है कि केंद्र सरकार इस समय अपने ही बनाए गए चक्रव्यूह में स्वयं बुरी तरह उलझती जा रही है। और अपने बचाव में मनमानी करते हुए कई ऐसे फैसले ले रही है जो आपातकाल से भी ज़्यादा खतरनाक व लोकतंत्र को नुकसान पहुंचाने वाले हैं। अत: यदि वर्तमान काल को आपातकाल के बजाए लोकतंत्र के लिए ‘आफतकाल’ कहा जाए तो यह गलत नहीं होगा।

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About the Author

Tanveer Jafri

Columnist and Author

Tanveer Jafri, Former Member of Haryana Sahitya Academy (Shasi Parishad),is a writer & columnist based in Haryana, India.He is related with hundreds of most popular daily news papers, magazines & portals in India and abroad. Jafri, Almost writes in the field of communal harmony, world peace, anti communalism, anti terrorism, national integration, national & international politics etc.

He is a devoted social activist for world peace, unity, integrity & global brotherhood. Thousands articles of the author have been published in different newspapers, websites & news-portals throughout the world. He is also recipient of so many awards in the field of Communal Harmony & other social activities.

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