‘अवांछित सामग्री’ से बचे मीडिया

0
35
निर्मल रानी**,,
हमारे देश में प्रेस अथवा मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ स्वीकार किया जाता है। ज़ाहिर है इतने बड़े अलंकरण केञ् बाद मीडिया की ज़ि मेदारी उतनी ही बढ़ जाती है जितनी कि लोकतंत्र केञ् शेष तीन स्तंभों की है। यानी न्यायपालिका,कार्यपालिका व संसदीय व्यवस्था केञ् बराबर की ज़ि मेदारी। यहां इस प्रकार की तुलनात्मक बहस में पडऩे से कुञ्छ हासिल हासिल नहीं कि लोकतंत्र केञ् उपरोक्तञ् शेष तीन स्तंभ अपनी ज़ि मेदारी कैञ्से निभा रहे हैं या कैञ्से नहीं। यह अपने मापदंडों पर खरे उतर रहे हैं या नहीं। एक मीडियाकर्मी केञ् नाते हमें सर्वप्रथम तो यही देखने व चिंतन करने की ज़रूञ्रत है कि हम अपनी ज़ि मेदारियों व कर्तव्यों का निर्वहन सही तरीक़ेञ् से कर पा रहे हैं या नहीं। निश्चित रूञ्प से मीडिया अपने शदार्थ केञ् अनुसार अपनी ज़ि मेदारी निभाने का प्रयास करता है। यानी शासनलृप्रशासन, न्यायपालिका तथा समाज केञ् मध्य एकलृदूसरे को आईना दिखाने तथा एकलृदूसरे तक एकलृदूसरे की आवाज़ पहुंचाने की ज़ि मेदारी निभाता है। व्यवस्था में पारदर्शिता बनाए रखने की कोशिश करता है। अपने गलीलृमोहल्लों से लेकर दूरलृदराज़ व देशलृविदेश की अच्छीलृबुरी ख़बरों को हमारे समक्ष लाता है। बुराईयों को बुराईयों केञ् रूञ्प में तथा अच्छाईयों को अच्छाई की शタल में प्रस्तुत कर समाज केञ् मध्य पारदर्शिता बनाए रखने की कोशिश करता है। ज़ाहिर है इसीलिए तमाम लोग जहां मीडिया से अपनी काली करतूतों को छुपाने का प्रयास करते हैं वहीं सकारात्मक व रचनात्मक कार्य करने वाले लोग इस बात केञ् आकांक्षी होते हैं कि मीडिया उनकी कारगुज़ारियों को बढ़ालृचढ़ा कर समाज केञ् समक्ष पेश करे। परंतु अफ़सोस की बात यह है कि कुञ्छ अवांछित तत्व अपनी नकारात्मक सोच तथा विवादित विचारों को प्रसारित करवाने व अपने सीमित हितों को साधने केञ् लिए भी मीडिया का सहारा लेते हैं। ऐसे में सवाल यह है कि タया मीडिया को इस प्रकार केञ् नकारात्मक, राष्ट्रविरोधी तथा देश की व समाज की एकता को छिन्नलृभिन्न करने वाले अवांछित तत्वों को मीडिया में स्थान देना चाहिए? ऐसे तत्व मीडिया द्वारा प्रोत्साहन देने योग्य हैं?  इस विषय पर होने वाली बहस केञ् दौरान प्रायः मीडिया विशेषज्ञ यह कहते दिखाई देते हैं कि जब जहां भी जो कुञ्छ जैसा है वैसा का वैसा जनता तक पहुंचाना मीडिया का कर्तव्य है। タयोंकि सच्चाई जनता व समाज केञ् सामने आनी चाहिए। निःसंदेह मीडिया की कारगुज़ारियों केञ् पक्ष में दिया जाने वाला यह कोरालृकरारा तर्कञ् किसी हद तक ठीक भी है। परंतु ऐसी नीति मीडिया की महज़ एक पेशेवर नीति ही कही जाएगी। लेकिन जब हम मीडियाकर्मी केञ् अतिरिक्तञ् समाज केञ् ज़ि मेदार सदस्य केञ् रूञ्प में स्वयं को देखते हैं तो हमें जहां मीडिया केञ् अधिकारों, कार्यक्षेत्रों तथा उसकेञ् अपने कर्तव्यों केञ् विषय में सोचना होता है वहीं हमारी सोच समाज केञ् एक ज़ि मेदार नागरिक की भी होनी चाहिए। उदाहरण केञ् तौर पर इस समय हमारे देश में समाज को विभिन्न मुद्दों पर विभाजित करने वाले नेताओं की एक बाढ़ सी आई लगती है। धर्म, जाति, भाषा व क्षेत्र केञ् नाम पर भारतीय समाज को विभाजित करने का ज़ोरदार प्रयास देश केञ् मुट्ठीभर चतुर बुद्धि राजनीतिज्ञों द्वारा किया जा रहा है। ऐसे लोग अपने विध्वंसात्मक मिशन को आगे बढ़ाने केञ् लिए तरहलृतरह की ज़हर उगलने वाली बातें विभिन्न वर्गो, क्षेत्रों, धर्मों व जातियों केञ् विरुद्ध अタसर करते रहते हैं। दुर्भाग्यवश इस प्रकार केञ् लोग ही स्वयं को भारतीय लोकतंत्र का ज़ि मेदार स्तंभ भी मानते हैं। जनता भी इन्हें समयलृसमय पर निर्वाचित कर देश की संसदीय व्यवस्था में शामिल कर देती है। ऐसे में इनकेञ् मुंह से निकला कोई भी वाタय भारतीय लोकतंत्र केञ् प्रतिनिधि केञ् मुंह से निकला हुआ वाタय समझा जाता है। इसी नाते मीडिया इनकी सभी अच्छी व बुरी बातों को पूरी तरजीह देता है।
परंतु समाज को विभाजित करने वाले इनकेञ् वक्तञ्व्यों, भाषणों तथा बयानों को प्रसारित व प्रकाशित करने केञ् परिणामस्वरूञ्प समाज में बड़े पैमाने पर दहशत ड्डैञ्लती है, आम लोगों केञ् रोज़गार प्रभावित होते हैं, देश का विकास बाधित होता है तथा अकारण ही समाज में धर्मलृजातिलृक्षेत्र या भाषा जैसे मुद्दों को लेकर धु्रवीकरण की सभावनाएं बढ़ने लगती हैं।ऐसे में タया एक ज़ि मेदार मीडिया परिवार का यह कर्तव्य नहीं है कि वह अपनी सत्यवादिता, पारदर्शिता तथा जस का तस दिखाने या प्रकाशित करने की नीति पर अमल करने केञ् बजाए राष्ट्रहित केञ् मद्देनज़र ऐसे विचारों को आगे बढ़ाने या उन्हें अहमियत देने से ही बाज़ आए? बजाए इसकेञ् यह देखा जा रहा है कि ऐसी ही विवादित ख़बरों या बयानों को मीडिया द्वारा विशेषकर टेलीविज़न को माध्यम बनाकर ऐसे समाचारों को ज़्यादा ही बढ़ालृचढ़ा कर, उसमें नमकलृमिर्चलृमसाला लगाकर तथा ऐसी ख़बरों का दहशत ड्डैञ्लाने वाले ढंग से प्रस्तुतीकरण कर अपनी टीआरपी बढ़ाने का गेम खेला जा रहा है। मज़े की बात तो यह है कि ऐसे नकारात्मक व राष्ट्र को विभाजित करने वाले बयान देने वाला नेता भी यही चाहता है कि मीडिया में उसे अधिक से अधिक स्थान व कवरेज मिले ताकि उसकी बातें बढ़ालृचढ़ा कर पेश की जाएं और समाज में होने वाले ध्रुवीकरण का सीमित लाभ उसे हासिल हो सकेञ्। तो タया मीडिया को भी ऐसी नकारात्मक सोच रखने वाले नेताओं की इच्छापूर्ति करनी चाहिए? उनकी इच्छाओं केञ् अनुसार タया मीडिया को उन्हें बारलृबार स्थान देकर उनकी अहमियत को और अधिक बढ़ाना चाहिए? タया एक सच्चे मीडिया परिवार या राष्ट्रभक्तञ् व समाज केञ् हितैषी मीडिया कर्मी का यह कर्तव्य नहीं है कि वह किसी सामग्री को प्रकाशित व प्रसारित करने से पहले उसकेञ् संभावित परिणामों व प्रतिक्रिञ्यास्वरूञ्प सामने आने वाले अन्य पहलुओं पर भी नज़र डाले? या फिर जस का तस पेश करने में ही मीडिया अपनी ज़ि मेदारी व कर्तव्य समझता है? भले ही इसकेञ् परिणाम कितने ही घातक यों न हों? कहना ग़लत नहीं होगा कि भारतीय मीडिया राष्ट्रीय स्तर से लेकर गलीलृमोहल्ले केञ् स्तर तक कुञ्छ ऐसी ही विडंबना का शिकार है जहां राष्ट्रीय स्तर पर धर्म व संप्रदाय केञ् नाम पर समाज को बांटने का प्रयास साा पर क़ज़ा करने की ग़रज़ से किया जा रहा है। वहीं क्षेत्रीय स्तर पर क्षेत्रीयता को बढ़ावा देने व दूसरे क्षेत्र केञ् लोगों को अपमानित करने व उन्हें अपने क्षेत्र केञ् लिए ख़तरा बताने की कोशिश क्षेत्रीय साा हथियाने की ग़रज़ से की जा रही है। इसी प्रकार जाति व भाषा का खेल भी ऐसे ही साालोभी क्षेत्रीय नेताओं द्वारा खेला जाता है। जबकि स्थानीय स्तर पर गली, वार्ड, मोहल्ला व क़स्बाई राजनीति में स्वयं को स्थापित करने की लालसा रखने वाले तमाम ऐसे छुटभय्यै नेता जो अपने जीवन में न तो अच्छी शिक्षा ग्रहण कर सकेञ्, न ही किसी रोज़गार केञ् क्षेत्र में स्वयं को स्थापित कर सकेञ्, न ही सरकारी या निजी प्रतिष्ठानों में सेवा करने योग्य शिक्षा हासिल कर सकेञ्, तमाम ऐसे लोग स़ड्डेञ्द कुर्ञ्तालृपायजामा  पहन कर तथा शुरु से ही नकारात्मक विचारों का  सहारा लेकर राजनीति में पदार्पण कर जाते हैं। ऐसे लोग अपनी चतुराई केञ् चलते यह समझते हैं कि स्थानीय मीडिया कर्मियों को उन्हें कैञ्से नियंत्रित रखना है और वे बड़ी आसानी से ऐसा कर भी लेते हैं। परिणामस्वरूञ्प उनकेञ् वタतव्य, उनकेञ् चित्र तथा उनकेञ् प्रेस नोट स्थानीय समाचार पत्रों व केञ्बल नेटवर्कञ् में जगह पाने लग जाते हैं। और कुञ्छ ही समय बाद बैठेलृबिठाए यही स्वार्थ्ीा ग़ैर ज़ि मेदार, अशिक्षित तथा नकारात्मक सोच रखने वाला व्यक्तिञ् मीडिया केञ् प्रोत्साहन केञ् बल पर स्वयं को स्थानीय नेता केञ् रूञ्प में स्थापित करने में तथा शोहरत हासिल करने में सफल हो जाता है। अब ज़रा सोचिए कि जब मीडिया द्वारा ऐसी नकारात्मक सोच रखने वाले व्यक्तिञ् को एक नेता केञ् रूञ्प में शुरु से ही स्थापित करने में उसकी सहायता की जाए और आगे चलकर विध्वंसक सोच रखने वाला यही विवादित स्वयंभू नेता क्षेत्रवाद, जातिवाद, संप्रदायवाद आदि की राजनीति करने लग जाए तथा अपने सीमित लाभ या क्षेत्रीय साा पर क़ज़ा जमाने की ग़रज़ से समाज को विभाजित करने वाली बातें करने लग जाए तो इसमें आश्चर्य की タया बात? लिहाज़ा समाज व राष्ट्रहित में तो यही है कि मीडिया अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने केञ् साथलृसाथ अवांछित सामग्री केञ् प्रसारण व प्रकाशन से भी बचने की कोशिश करे। अभिव्यक्तिञ् की स्वतंत्रता केञ् नाम पर देश व समाज को विभाजित करने की इजाज़त किसी भी व्यक्तिञ् को नहीं दी जानी चाहिए। मीडिया को भी इस विषय पर चिंतन कर अपनी नीति में बदलाव लाने की ज़रूञ्रत है ताकि ऐसी नकारात्मक व विभाजित करने वाली राजनीति करने वालों को बढ़ावा न मिल सकेञ्।
*******

*निर्मल रानी

कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं.

Nirmal Rani (Writer)
1622/11 Mahavir Nagar
Ambala City  134002
Haryana
phone-09729229728

*Disclaimer: The views expressed by the author in this feature are entirely her own and do not necessarily reflect the views of INVC

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here