अटूट हैं इस्लाम और संगीत के रिश्ते *

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nusratfatehalikhanतनवीर जाफ़री**,

फ़तवा जारी करने में महारत रखने वाले तमाम नीम-हकीम मुल्लओं द्वारा समय-समय पर इस्लाम धर्म के हवाले से ऐसे विवादित फतवे जारी किए जाते रहे हैं जिन्हें सुनकर आम लोग विचलित हो जाया करते हैं। ऐसे ही विवादित फ़तवों में एक है मोलवियों द्वारा समय-समय पर दिया जाने वाला गीत-संगीत विरोधी फतवा। ऐसे फतवे हालांकि पहले भी कई देशों के तमाम ‘नीम-हकीम’ मोलवियों द्वारा विभिन्न देशों में जारी किए जा चुके हैं। परंतु पिछले दिनों कश्मीर के एक रॉक बैंड में मुस्लिम युवाओं की भागाीदारी के विरुद्ध जब एक मोलवी ने इस्लामी दलीलें पेश करते हुए एतराज़ जताया तो एक बार फिर भारत में इस बात को लेकर बहस छिड़ गई कि वास्तव में इस्लाम धर्म में संगीत का क्या स्थान है? इस्लाम में संगीत की प्रासंगिकता क्या है और संगीत, इस्लाम की नज़रों में जायज़ है या हराम और नाजायज़? क्या मोलवियों को समय-समय पर ऐसे विषयों पर अपने फ़तवे जारी भी करने चाहिए या नहीं?
आइए इस विषय पर इस्लामी इतिहास में झांकने की कोशिश की जाए। गौरतलब है कि इस्लाम धर्म को हज़रत मोह मद साहब के समय से जोडक़र देखा जाता है। परंतु इस्लामी मान्यताएं यह हैं कि हज़रत मोह मद जोकि इस्लाम के आखिरी पैग बर माने जाते हैं उनके समय से उनकी उम्मत या अनुयायी जिस पंथ का अनुसरण करने लगे उसका नाम इस्लाम था। परंतु इस्लामी मान्यताओं के अनुसार इस्लाम की शुरुआत धरती के प्रथम मानव व प्रथम पैगंबर हज़रत आदम से हुई बताई जाती है। गोया हज़रत आदम से लेकर हज़रत मोह मद तक एक लाख चौबीस हज़ारपैग़म्बर पृथ्वी पर खुदा की ओर से अवतरित किए गए। इनमें केवल चार पैग़म्बर ऐसे थे जिनपर ख़ुदा ने अपनी हिदायतें अता कीं और बाद में इन्हीं हिदायतों का संकलन पुस्तकों के रूप में सामने आया। इनमें हज़रत मोह मद पर $कुरान शरी$फ नाजि़ल हुआ तो हज़रत ईसा पर इंजील(बाईबल),हज़रत मूसा पर तौरेत उतरी तो हज़रत दाऊद पर ज़ुबूर। यानी हज़रत दाऊद की गिनती एक लाख 24 हज़ार में से सर्वोच्च या सर्वश्रेष्ठ समझे जाने वाले चार साहब-ए-किताब(पुस्तकधारी) पैग़म्बरों (अवतारों) में की जाती है। अब यदि हमपैग़म्बर हज़रत दाऊद की सबसे बड़ी विशेषता एवं उनके सबसे प्रमुख आकर्षण पर नज़र डालें और उनसे जुड़े इतिहास के पन्नों को पलटें तो हम यहां पाएंगे कि खुदा ने हज़रत दाऊद को मूसीक़ी का शहंशाह बनाकर पृथ्वी पर अवतरित किया था। बताया जाता है कि जब वे अपने सुर लगाते थे तो पर्वत और जंगल मस्ती में आकर उनके सुर से अपना सुर मिलाने लगते थे। इतना ही नहीं बल्कि तमाम पक्षी व जानवर सभी हज़रत दाऊद की सुरीली आवाज़ की ओर खिंचे चले आते थे। गोया हज़रत दाऊद का रागों, साज़ों व सुरों पर संपूर्ण नियंत्रण था।
ज़ुबूर में यह भी लिखा हुआ है कि कौन-कौन से रागों में गाकर तथा किन-किन साज़ों को बजाकर हज़रत दाऊद ने खुदा की शान में कसीदे पढ़े। यदि अल्लाह की नज़रों में संगीत हराम या नाजायज़ होता तो वह अपने प्यारे पैग़म्बर हज़रत दाऊद को क्योंकर गीत-संगीत की इतनी बड़ी दौलत व हुनर से नवाज़ता? हराम चीज़ें खुदा क्योंकर अपने पैगबर को अता करता? इतिहास है कि खुद पैगंबर हज़रत मोह मद ने अपने एक सहाबी अबु मूसा अशरी की आवाज़ सुनकर प्रसन्न होकर कहा था कि लगता है तु हारे गले में दाऊद का साज़ है। आज पूरी दुनिया में कुरान शरीफ की तिलावत(पढऩा)की प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं। इसमें केवल साज़ नहीं होते बाकी सुर,धुन और गले का पूरा हुनर दिखाया जाता है। और पूरे विश्व में ऐसे प्रतियोगियों को स मानित भी किया जाता है। हज़रत मोहम्मद के समय में अज़ान देने वाले हज़रत बिलाल अपनी गुलूकारी के लिए इतने प्रसिद्ध व लोकप्रिय थे कि आज तक अज़ान-ए-बिलाल का जि़क्र मौलवियों द्वारा किया जाता है। और तमाम इस्लामी किताबों में उनके अज़ान पढऩे की कला का जि़क्र है। हज़रत मोह मद को भी हज़रत बिलाल की अज़ान अत्यंत प्रिय थी। खुदा या अपने पीर-मुर्शिद की उपासना करने का एक प्राचीन माध्यम गीत-संगीत ही है। कहा जा सकता है कि इसकी शुरुआतपैग़म्बर हज़रत दाऊद के साज़ से हुई जो आज के युग में चलते-चलते नुसरत फतेह अली खां और बिस्मिल्ला खां जैसे संगीत के महारथियों तक पहुंची। बिस्मिल्लाह खां व नुसरत फतेह अली खां दानों ही के बारे में बताया जाता है यह पांच वक़्त के नमाज़ी थे और दिमागी तौर पर हर समय खुदा की याद में खोए रहते थे। और उनका यही चिंतन उन्हें गीत व संगीत की दुनिया में उस बुलंदी पर ले गया पर ले गया जहां दुनिया का कोई दूसरा शहनाई वादक या गायक नहीं पहुंच सका। बड़े आश्चर्य की बात है कि शहनाई जैसे साज़ पर अपना एकछत्र नियंत्रण रखने वाले उस्ताद बिस्मिल्लाह खां को तो उनकी अभूतपूर्व शहनाईवादन जैसी कला के लिए सरकार भारत रत्न से नवाज़ती है तो कठमुल्लों को वही संगीत इस्लाम विरोधी या नाजायज़ दिखाई देता है।
इसी प्रकार नुसरत फतेह अली खां एक सच्चे मुसलमान भी थे। नमाज़ी व परहेज़गार भी। उन्होंने अपनी आवाज़, संगीत व निराली व आकर्षक गायन शैली की बदौलत संगीत की दुनिया में वह याति अर्जित की जिसका कभी कोई मुकाबला नहीं कर सकता। गुरु नानक, बुल्लेशाह,फरीद,हज़रत मोह मद,हज़रत इमाम हुसैन, हज़रत अली सहित तमाम पीरों-फकीरों की शान में अपने विशेष अंदाज़ में कव्वालियां, कसीदे, हमद , नात व कॉफी आदि गाकर फतेहअली खां ने दुनिया में इस्लामी पीरों-फक़ीरों, पैग़म्बरों व संतों के क़सीदे पढ़े। मज़ारों, खाऩक़ाहों, दरगाहों में कव्वालियां गाने तथा गीत-संगीत के माध्यम से अपने मुर्शिद को खुश करने, उसे श्रद्धांजलि देने या उसकी शान में कसीदे पढऩे का सिलसिला बेशक हज़रत दाऊद के समय से शुरु हुआ परंतु मध्ययुगीनकाल में हज़रत अमीर खुसरू के ज़माने से इस कला को पुन: संजीवनी मिली है। यदि इस्लाम में संगीत हराम या नाजायज़ होता तो हज़रत अमीर खुसरू की गीत-संगीत के प्रति क्योंकर इतनी दिलचस्पी होती? अजमेर शरीफ, हज़रत निज़ामुदीन औलिया जैसे महान सूफी-संतों की दरगाहें हर वक्त ढोलक, तबले और हारमोनियम की आवाज़ों से सराबोर रहती हैं। क्या इनमें शिरकत करने वाले, गाने या सुनने वाले सभी गैर इस्लामी, हराम और नाजायज़ अमल करते हैं?
मोहर्रम के अवसर पर हज़रत इमाम हुसैन की शहादत को याद कर उन्हें कई धर्मों के कई वर्गों द्वारा अलग-अलग तरीके से श्रद्धांजलि दी जाती है। इनमें कहीं मरसिए पढ़े जाते हैं तो कहीं सोज़, कहीं नौहा तो कहीं रुबाई। सभी कलाम बाकायदा सुर और गुलूकारी पर आधारित होते हैं। नौहा-मातम की तो बाकायदा धुनें तैयार की जाती हैं। बिस्मिल्लाह खां अपनी शहनाई बजाकर ही हज़रत इमाम हुसैन को श्रद्धांजलि दिया करते थे। उनकी शहनाई सुनकर तो पत्थर दिल इंसान भी रो पड़ता था। क्या यह सब इस्लाम में संगीत के हराम होने के लक्षण कहे जा सकते हैं? जिस हज़रत इमाम हुसैन ने इस्लाम धर्म को बचाने के लिए करबला में अपने पूरे परिवार की कुर्बानी दी हो उस हुसैन के चाहने वाले क्या गैर इस्लामी तरीके अपना कर अपने प्रिय हुसैन को याद करना चाहेंगे? शायद कभी नहीं। बड़े आश्चर्य की बात है कि कठमुल्लों को इस्लाम में संगीत हराम और नाजायज़ दिखाई देता है। तो दूसरी तरफ अल्लाह ने मुस्लिम घरानों में ही बड़े व छोटे गुलाम अली, डागर बंधु,बिस्मिल्लाह खां, फतेहअली,मेंहदी हसन,गुलामी अली सहित तमाम ऐसे उस्ताद $फनकार पैदा किए जिनकी प्रसिद्धि की पताका हमेशा दुनिया में गीत-संगीत के क्षेत्र में लहराती रहेगी। कहना ग़लत नहीं होगा कि किसी भी व्यक्ति का संगीत से रिश्ता तो उसके पैदा होने के साथ ही उसी वक्त शुरु हो जाता है जबकि एक नवजात शिशु की मां अपने बच्चे को सुरीली आवाज़ में लोरियां गाकर उसे सुलाने का प्रयास करती है।
दरअसल इस्लामी नीम-हकीम कट्टरपंथियों द्वारा संगीत के विरुद्ध दिए जाने वाले तर्कों का कारण यह है कि संगीत का जादू किसी इंसान पर नशा सा चढ़ा देता है और गीत-संगीत में डूबा हुआ इंसान अपनी वास्तविकता से दूर हो जाता है। यही तर्क इस्लाम में नशे के विरुद्ध भी दिया गया है और संगीत को नशे की श्रेणी में रखा गया है। परंतु संगीत के पैरोकार इस तर्क को खारिज करते हैं और सुर-साज़ और साज़ों से निकलने वाले संगीत को खुदा की ही बख्शी हुई एक सौग़ात मानते हैं। इसके पक्ष में संगीत प्रेमी मुसलमान हज़रत दाऊद से लेकर अमीर खुसरो और आगे नुसरत फतेह अली खंा जैसे सुर सम्राटों के तर्क पेश करते हैं। जहां तक गीत-संगीत में मदहोशी छाने का प्रश्र है तो इसे भी संगीत प्रेमी अपने पक्ष में ही देखते हैं। उनका मानना है कि यदि अपने आराध्य की याद में खो जाने व उसका नशा अपने आप पर हावी होने देने के लिए गीत और संगीत का सहारा लिया जा सकता है तो इससे बेहतर और क्या हो सकता है। इन सब बातों व तर्कों के बावजूद यह सत्य है कि इस्लाम धर्म के तमाम वर्गों में अब भी रूढ़ीवादी लोग गीत-संगीत से नफरत करते हैं। उनका संगीत से फासला बनाकर रखना या नफरत करना उन्हें मुबारक हो। परंतु इस विषय पर सार्वजनिक रूप से इस्लाम का नाम लेकर गीत-संगीत के विरुद्ध $फतवे नहीं जारी करने चाहिए। संगीत के अतिरिक्त तमाम और भी ऐसी बातें हैं जिन्हें लेकर मुसलमानों के अलग-अलग वर्गों में मतभेद बने हुए हैं। परंतु किसी वर्ग या किसी विचारधारा को दूसरों पर अपनी बातें जबरन थोपने का अधिकार किसी को हरगिज़ नहीं होना चाहिए !

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Tanveer Jafri  columnist Author Author ,Tanveer Jafri Former Member of Haryana Sahitya Academy**Tanveer Jafri ( columnist),(About the Author) Author Tanveer Jafri, Former Member of Haryana Sahitya Academy (Shasi Parishad),is a writer & columnist based in Haryana, India.He is related with hundreds of most popular daily news papers, magazines & portals in India and abroad. Jafri, Almost writes in the field of communal harmony, world peace, anti communalism, anti terrorism, national integration, national & international politics etc.He is a devoted social activist for world peace, unity, integrity & global brotherhood. Thousands articles of the author have been published in different newspapers, websites & news-portals throughout the world. He is also a recipient of so many awards in the field of Communal Harmony & other social activities.

(Email : tanveerjafriamb@gmail.com)**Tanveer Jafri ( columnist),
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*Disclaimer: The views expressed by the author in this feature are entirely his own and do not necessarily reflect the views of INVC.

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